Sunday, May 14, 2017

Kapil Jain's Short Story : Ranjish hi Sahi , Dil hi Dukhane ke liye Aaa

रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिऐ आ

राजन तुम मुझसे सत्रह साल छोटे हो , जब आखिर बार तुम आये तो तुम्हे वो बात नही कहनी चाहिये थी , माँ ने मामा को गिला शिक़वे के लहज़े में कहा , अभी मामा जी को आये पाँच मिनट भी नही हुए थे , सिर्फ पानी ही उनकी ख़ातिर में आया था , मामा जी ने माँ के लहज़े मे झुपी नाराज़गी को तुरंत भाँपते हुए पूछा , कौन सी बात बहनजी ? , मै कुछ समझा नही , वो हैरान परेशान , तब तक माँ भी भूल गयी कौन सी बात , बोली खैर छोड़ो उस बात को , यह बताओ , तुम इतने इतने दिन हो जाते है मिलने भी नही आते ,  मामा जी बोले बहनजी अभी पिछले महीने ही तो आया था , राजन अब तुम भी मुझे दिन गिना रहे हो , यह अब तक का तीसरा गिला शिकवा था माँ का मामा जी के प्रति , जिनका आगमन हुए अभी सिर्फ दस मिनट ही हुऐ थे ।

मुझे बहन-भाई के इस बातचीत का कोई सिर पैर नज़र नही आ रहा था , मैने बीच में टपकते हुऐ पूछा मामा जी आप क्या लेंगे ? मामाजी जवाब देते इससे पहले ही माँ  मुझसे बोली कामिनी को बोलो , ठंडा आम का पन्ना जो मैने बनवाया है ख़ास राजन के लिये , वो लाये , और कुछ फल कटवाओ , कितनी गर्मी में राजन आया है , उसके बाद , खाना भी , आज सिर्फ राजन की पसंद का बनवाया है , दही भल्ले इत्यादि , अब हैरान परेशान होने की मेरी बारी थी , कि माँ अपने भाई को दुलार कर रही है या गुस्सा ।

मामाजी परेशान हो चुके थे , उनको कुछ समझ नही आ रहा था कि उनसे कौन सी बात , कब गलत हो गयी , अपनी बड़ी बहन के प्रति | मुझको बोले कपिल , मैने बहनजी को पिछली शाम ही फ़ोन करके बताया था कि कल इतवार है , मै ग्यारह बजे आपसे मिलने नोएडा आऊंगा , उन्होंने कहा , लंच साथ करेंगे , बहुत ही ख़ुश थी फ़ोन पर | मुझे याद ही नही आ रहा कि मुझसे कोई सी बात गलत हो गयी , जिसका ज़िक्र बहनजी कर रही है , मामाजी के दबे कुचले लहज़े मे एक मासूम सी शर्मिन्दगी लिए माफ़ी की गुज़ारिश थी , जो दिल को दहलाने की कैफ़ियत रखती थी , मैने उनके दिल का मर्म समझते हुऐ कहा , मामाजी , ऐसी कोई बात नही है , तब तक माहौल पटरी से उतर चुका था , मामाजी का मूड ख़राब सा हो गया था , अपने भाई का उतरा चेहरा देख , माँ तुरंत बड़ी बहन की मुद्रा में बोली , राजन , आम का पन्ना लो इत्यादि इत्यादि , सब बेअसर,  उसके बाद मामाजी एक डेढ घंट बामुश्किल गुजारा , और भारी मन से चले गये ।

पिछले एक महीने मे लगभग तीसरी चौथी बार , यही नाटकीय परिस्थिति , क़िरदार बदल बदल के हुई , एक के बाद एक , रीता दीदी , सुजाता दीदी , कांता मौसी , और आज राजन मामाजी , सब आये बढ़िया मूड़ में माँ से मिलने , सबकी आने की इत्तला पहले से थी , उनके आते ही माँ द्वारा उनके प्रति शिकायतों का अंबार , इसके बाद उनके पसंदीदा व्यंजओ से सजी टेबल और उनका भारी मन से अपने घर के लिये प्रस्थान , और उसी शाम उसी क़िरदार से फ़ोन पर लंबी बात जिसमे माँ का पूरी तरह वात्सल्यता से परिपूर्ण , आशीर्वादों से भरा और उस क़िरदार की तारीफों का तांता , घण्टों चलते फ़ोन से उस दिन का अंत , मेरे अनुमान अनुसार उस क़िरदार का वो सारा दिन बर्बाद , ना तो वो माँ को कुछ कह सके , ना कुछ कर सके , इधर माँ को उस शाम को बैचैनी की , मैंने उस क़िरदार को क्यों इतनी बाद सुनाई ।

बकौल फैज़ अहमद फैज़ ,
’वो बात सारे फ़साने में जिस का ज़िक्र न था ,
वो बात उन को बहुत ना-गवार गुज़री है ,

घर का सारा माहौल बहुत ही बोझिल था , एक अजीब सी किचकीची फिज़ा मे थी , माँ तो कभी भी ऐसी नही थी , यह सारी समस्या लगभग पिछले एक महीने के करीब मे उजागर हुई है , क्या कारण है कोई पता नही , अभी हाल ही मे हुई सारी मेडिकल रिपोर्टो में सभी कुछ ठीक आया है , उसके बावजूद सब गड़बड़ थी ।

पच्चीस तीस दिन और गुजरे होंगे , शाम ओखला फैक्ट्री से नोएडा घर आ रहा था , जाने क्यों इतना ट्रैफिक जाम लगा था , कार का सीडी प्लेयर ऑन किया मिक्स्ड ग़ज़लों की सीडी थी , दो तीन ग़ज़ले निकली होंगी की मेहंदी हसन साहिब की दिलकश मखमली आवाज़ मे बीसियों साल पुरानी मेरी पसंदीदा ग़ज़ल अहमद फ़राज़ कृत

'रंजिश ही सही , दिल ही दुखने के लिये आ' ’
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ'

बजने लगी , यह ग़ज़ल मैने अब तक ज़्यादा नही तो भी पचासियों बार सुनी होगी ,

कुछ तो मेरे पिंदारे मोहब्बत का भ्रम रख ,
तू मुझ से खफ़ा है तो ज़माने के लिऐ आ

(पिंदारे : self esteem
At least have some consideration of my esteem my pride , even if you are annoyed with me , even than come due to social obligations.)

जैसे ही गज़ल का यह शेर बजा, एक बिजली सी कौंधी दिल में , यही हो रहा है माँ के साथ , यही हो रहा है माँ के साथ , बस यही हो रहा है , मसले का हल मिलता दिखाई दिया , अब तक ट्रैफिक जाम में धीरे धीरे से कार आगे बढ़ रही थी , पर अब प्राथमिकता इस जवलंत मसले का हल ढूंढ़ना था , मैने कार को जग़ह देख के साइड लगाया , गज़ल को ध्यानपूर्वक फ़िर सुना ,  बीसियों साल मे पहली बार समझ आयी इस ग़ज़ल की बुलंदी ,

इस ग़ज़ल मे शायर अहमद फ़राज़ ने एक ख़ास मानसिक परिस्तिथियों को इस खूबसूरती से शब्दों में पिरोया है , जिसमे अकेलापन एक व्यकित्व को घेर लेता है , व्यक्ति  बिल्कुल अनजाने में इस सिंड्रोम में घिर जाता है , और दूसरे किसी भी व्यक्ति से मनमुटाव शिक़वे शिकायत इसलिये कर लेता है , कि सुलह सफ़ाई के बहाने कुछ वक्त तो और साथ व्यतीत होगा , अब मुझे सारी समस्या और हल साफ़ दिख रहे थे ।

पिछले दो महीनों से माँ के पैरों का दर्द कुछ बढ़ सा गया था, जिसकी वजह से उनका अपने कमरे से डाईनिंग टेबल तक आकर खाना लेने की हिम्मत भी कुछ टूट सी गयी थी , पहले हम सुबह का नाश्ता डाइनिंग टेबल पर साथ करते थे जिसमे कम से कम आधा घंटा साथ एन्जॉय करते थे , इस ही तरह उनका लंच डिनर भाभीजी कामिनी और बच्चों के साथ होता था , साथ बिताया समय हुआ लगभग ढाई तीन घंटे , बाकी बचे समय मे TV , किताब , इधर फ़ोन , उधर फ़ोन, बेटियां , नाती , पोते , भाई , भाभी , कहने का अर्थ सारा दिन बढ़िया गुजरता था , पर अब , नाश्ता लंच डिनर सब कमरे मे बेड पर , जिसका सीधा असर, साथ बिताते समय की ड्यूरेशन पर पड़ा जो ढाई तीन घंटे से घट कर आधा पौना घंटा रह गया , जिसका सीधा रिजल्ट था पिछले अंतरे में लिखित सिन्ड्रोम ।

सबको अनुरोध किया गया कि माँ के साथ ज़्यादा से ज़्यादा समय व्यतीत करे , सबने अपना अपना सहयोग देना शरू किया ,  देखते ही देखते वो दुःखद सिन्ड्रोम ग़ायब हो गया , उसके बाद माँ का फिर वही पुराने ख़ुशफ़हम व्यक्तित्व में वापस आ गयी ।

करीब दो साल बाद बयासी वर्ष की आयु मे , हॉस्पिटल के कमरे मे अपनी बहू , बेटी , नर्स और डॉक्टर साहिब से ख़ूब खिलखिलाते हुए बात करते हुऐ , एक शानदार स्वर्ग प्रस्थान प्राप्त किया , जाना सभी ने है , खिलखिलाते हुए शानदार पदवी के साथ , या ?

उसके बाद से आज तक अनगिनत बार फिर सुनी , वही ग़ज़ल  ’रंजिश ही सही , दिल ही दुखाने के लिये आ’ ,

शायर श्री अहमद फ़राज़ साहिब को सलाम
गायक श्री मेहँदी हसन साहिब को सलाम

कपिल जैन

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Kapil Jain
Kapulrishabh@gmail.com
Noida , U.P. , India
May 14 , 2017

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