Monday, December 5, 2016

Sochta Hoon Agar Main Dua Mangta

Kapil Jain's Understanding of "Relationships between Beloved & God",
Through the Song from Movie 'Bobby'
”सोचता हूँ अगर मैं दुआ मांगता ?
”Sochta Hoon Agar Main Dua Mangta
By Shri Anand Bakshi Ji.

फिल्म Bobby, 1973 मे रिलीज़ हुई , उसमें एक गाना
'मैं शायर तो नहीं  , मगर ऐ हसीं ,जब से देखा '
हम सबने अनेकों  बार सुना है , स्वर्गीय श्री आनंद बक्शी साहिब गीतकार का लिखा यह तराने मे एक अंतरा है
”सोचता हूँ अगर मैं दुआ मांगता ?
जिसने मेरा मंदिर मे जाकर भगवान की प्रतिमा के दर्शन के दौरान दिल मे उमड़ते भावों का संपूर्ण रूप प्रभावित किया है ,
गाने का अंतरा की पंक्तियां कुछ यूँ हैं

”सोचता हूँ अगर मैं दुआ मांगता ?
हाथ अपने उठाकर मैं क्या मांगता ?
जब से तुझसे मोहब्बत मैं करने लगा,
तब से जैसे इबादत मैं करने लगा,
मैं काफिर तो नहीं  , मगर ऐ हसीं
जब से देखा मैंने तुझको,
मुझको बंदगी आ गयी ।”

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पृष्ठभूमि शुरू :
बात आगे बढ़ाने से पहले , कुछ पृष्ठभूमि पहलूँ को साफ़ कर लेते है। सिर्फ अपने अनुभव से , किसी और का अनुभव भिन्न हो , स्वभाविक है । मेरा यह अनुभव प्राथमिक रूप से जैन मंदिर एवं जैन तीर्थकर की अत्यंत जीवंत साक्षात प्राण सजीव रूप से है , दूसरे शब्दों में पत्थर, पत्थर रहा ही नही , सजीव बल्कि साक्षात् तीर्थंकर के तेजस्वी रूप का अनुभव हुए ।

संसार भर के मूर्तिपूजक समाज मे , शिल्पकार एक पत्थर की शिला ( जैसे संगेमरमर इत्यादि की ) लेकर अपने औजार जैसे छेनी हथौड़ी से , एक प्रचलित मान्यता और शास्त्रो ग्रंथों एवम साहित्यिक कृतियों मे विवरण इत्यादि से उपजी छवि को पत्थर से एक साकार मूर्त रूप प्रदान करता है जिसे मूर्ति कहा जाता है । अगर मिसाल के लिये , भगवान महावीर का निर्वाण हुए अनुमानित 2600 साल हुए और निर्वाण भूमि पावापुरी जी , ओर एक प्रतिमा अगर अनुमानित 1000 साल पहले बनाई गयी है स्थान दक्षिण भारत सुदूर मे , तो यह जो 1600 साल और स्थान का 1200 किलोमीटर का जो फर्क है , तो स्वभाविक प्रश्न ये है कि तीर्थंकर जो किसी ने तपस्या लीन देखा , उसने विवरण को लिखा , जाहिर सी बात है , जिसने लिखा वो ही शिल्पकार जो यह बहुत कम सम्भावना है , अतः यह बात तय मानिये की विवरण को लिखने वाला और शिल्पकार दो अलग अलग शख्सियत है ।

अतः वह ग्रंथ ( ग्रंथों ) जिसमे तीर्थकर के तेजस्वी रूपो का व्याख्यान है वह आधारभूत ज्ञान है ।

पत्थर को तराश कर बनी मूर्ति
मूर्ति की प्राणं प्रतिष्ठा हुई , स्वरूप बदला , हुई प्रतिमा ।
जैन धर्म मे प्राणं प्रतिष्ठा की प्रक्रिया को पंच कल्याणक महोत्सव के नाम से जाना जाता है ।
प्रतिमा मंदिर मे सुशोभित हुई ।
आपने हमने दर्शन किये ।
क्या भगवान के तेज़ का अनुभव हुआ ?
यही है मूल प्रश्न ।

यह सब तब्दीली तो हमारे दिल के अंदर है , बाहर तो शुरू से आख़िर तक एक पत्थर की मूर्ति , मानो तो भगवान ना मानो तो पत्थर ।

पृष्ठभूमि ख़त्म ।
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वापस लौटते है फिल्म बॉबी के गाने पर

”सोचता हूँ अगर मैं दुआ मांगता ?
हाथ अपने उठाकर मैं क्या मांगता ?
जब से तुझसे मोहब्बत मैं करने लगा,
तब से जैसे इबादत मैं करने लगा,
मैं काफिर तो नहीं  , मगर ऐ हसीं
जब से देखा मैंने तुझको,
मुझको बंदगी आ गयी ।”

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”सोचता हूँ अगर मैं दुआ मांगता ?
Let me think if I pray then what for ?

हाथ अपने उठाकर मैं क्या मांगता ?
In prayer , raising hands towards lord then what for ?

जब से तुझसे मोहब्बत मैं करने लगा,
The moment , I start loving you my beloved .

तब से जैसे इबादत मैं करने लगा,
Same moment as if I started Worshipping,

मैं काफिर तो नहीं  , मगर ऐ हसीं,
I am not a Infidel , Oh my beloved beauty ,

जब से देखा मैंने तुझको,
The moment , I saw you ,

मुझको बंदगी आ गयी ।”
That very moment , I understand Devotion.

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सारांश :
चाहे आप किसी मूर्ति मे , प्रतिमा मे , भगवान ढूंढ़िए या पाइये , चाहे किताब मे , चाहे उस 'लौ' मे जो अदृश्य हो कर भी मौजूद है , बाहर कही नही है , अंदर दिल और दिमाग़ मे है , ( Discover within your self ).

यहाँ दिलरुबा महबूबा एक रूपक ( Metaphor ) है , महबूबा से मोहब्बत पहली कड़ी , पहली सीढ़ी है , आपको ख़ुदा तक पहुचाने के  लिये । शिल्पकार की उसी व्याख्या की तरह जो उसने शब्द से मूर्ति के रूपक तक अस्तित्व मे आयी । छोटे से छोटे जीवों से लेकर प्राणः संवेदन से मोहब्बत ही,  मेहबूबा से मोहब्बत का प्रारूप है और ' जिओ और जीनों दो ’ का ज्ञान    केंद्र बिंदु ।

यह मेरा निजी अनुभव है ।
किसी और का भी यही हो ,जरूरी नही ।
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©®℗
Kapil Jain,
Kapilrishabh@gmail.com
Noida , December 4 , 2016.






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